Sunday 24 June 2012

मेरी बेटी!



अपनी पगली बेटी के नाम एक पत्र - गिरिजेश 

मेरी बेटी!

गुड़िया जैसी भोली-भली, सीधी-सादी!
तन से सुन्दर, मन से निर्मल, मेरी अपनी, अच्छी बेटी!
कुटिल जगत का कलुष सताने आया तुझको,
बेटी, तेरी पीड़ा देखा, तड़प उठा मैं, बेबस था, कुछ कर न सक मैं;
सच कड़वा, चुप रह न सका मैं.
संघर्ष जटिल था, लड़ना था, अपनों के सम्मुख अड़ना था;
चुप खड़ा रहा, मैं लड़ न सका;
आजीवन लड़ता ही आया, पर हुआ भला क्या मुझे आज?
मैं बढ़ न सका, कुछ गढ़ न सका, क्यों लड़ न सका?
परवशता का बन्धन अकाट्य, मैं नहीं अभी तक काट सका!
मगरूर दम्भ के उपालम्भ को चूर-चूर कर पाट सका.
तेरी वेदना-विसंगति को झेला तो है मैंने ज़रूर;
सम्प्रति तो आत्म-समर्पण ही करने को हूँ मजबूर.
तेरी गरिमा - तेरी विपदा, तेरी सीमा का बन्ध तना;
तेरा सीधा-सदा स्वभाव अभियोग और आरोप बना.
अस्मिता नहीं, अस्तित्व मात्र की खातिर भी तू सह न सकी!
"चुप रहना" ही थी कूटनीति, पर लड़ बैठी, चुप रह न सकी. 
'दो घटकों की विपरीत प्रकृति की संगति की लय पर ही जीवन-सूत्र बंधा;
है नहीं जगत में कुछ भी सम्भव, सीधा, सरल, सटीक, सधा.'
मैं सिखा न पाया आज तलक इतना-सा सच,
मेरे भी अपने हिस्से का यह कड़वा सच.
मैं भी तो कितना बेवकूफ हूँ?
समझ न पाया शक्ति-सन्तुलन की यह स्थिति,
तुझको, तेरे जीवट को, यह विकट परिस्थिति.
"ज्वाला का आवाहन करना और कलपना जल जाने पर" - ऐसा क्यों है?
और "आत्महत्या तो केवल कायरता है" - सब कहते हैं!
रंच-मात्र भी नहीं कल्पना कर सकता हूँ, कोई कह ले - 
"कुटिल जगत की प्रताडना से हार गयी थी, बेचारी थी, जीत न पायी, राह नहीं थी;
खुद अपने को मार गयी, वह हार गयी थी."
पर सोचो तो ज़रा, अगर यूँ हार गयी तू!
जीवन का विष पचा न पायी, अपने ही को मार गयी तू!
तो क्या मैं भी आगे कुछ भी कर पाऊँगा?
तेरी पीड़ा सह कर जीवित रह पाऊँगा?
क्या कलंक की कालिख का हक़दार न हूँगा?
कैसे दग्ध हृदय से फिर मैं मन्त्र पढूंगा?
नन्हे बच्चों के भविष्य के सारे सपने, 
किसके हैं वे? अपने हैं, केवल हैं अपने.
यह पाथेय उन्हें कैसे कुछ भी बल देगा?
उनके भी चेहरों पर यह कालिख़ मल देगा.
उनके कल का कैसा ताना-बाना होगा?
उनको हमसे तो कुछ आगे जाना होगा.
सोचो कितना कठिन युद्ध है, मन मत तोड़ो;
दाँव-पेंच सीखो, मत हिम्मत अपनी छोड़ो, 
नहीं पलायन ही करना है मुझको-तुझको;
नहीं वेदना की कडुवाहट छीने सुध को.
हर चीज़ बदलती है, बदली है, फिर बदलेगी.
पर कैसे?
सोचो, प्रश्न स्वयं उत्तर है - धीरज से, श्रम से, प्रयास से, अविचल बल से.
जीवन के संकीर्ण स्वार्थ की सीमा तोड़ो;
मन में बन्धन बहुत गड़ रहे, काटो-छोड़ो!
झुकने को तुम हार न मानो, तन जाने में जीत न जानो. 
'चुप्पी' का मारक प्रहार कर बैठा हूँ मैं, 
नहीं सहन कर पाया, अब लड़ बैठा हूँ मैं.
इसकी दोधारी ताकत को तो पहिचानो,
खुद को समझो, जग को जानो, सच को मानो,
रखो भरोसा सृजन-शक्ति पर, जीवन-गति पर, मेरी मति पर,
पलट-पलट कर वार करूँगा, मैं अनवरत प्रहार करूँगा;
मुक्त गगन - उन्मुक्त उड़ानें, सतत साधना - लम्बी तानें,
मैं छेड़ूँगा युद्ध-राग!
निश्चय ही, फिर-फिर मैं छेड़ूँगा लपट आग,
जिसकी ज्वाला में धू-धू कर जल जायेगा, 
यह समाज है पुरुष-प्रधान, पूँजीवादी और सामन्ती आन-बान;
सारा का सारा नकली-फर्ज़ी यह गुमान.
तब जा कर आज़ाद बनेगी अपनी दुनिया, 
और गुलामी औरत की भी नहीं बचेगी|


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