Thursday 28 June 2012

महासमर में माटी का बेटा - गिरिजेश




देखो तो, देखो! कौन है? कौन है वह, जो अब भी बढ़ा जा रहा है? अब जब कि परिस्थिति पूरी तरह प्रतिकूल है। कुटिल शत्रु घात लगाये दुरभिसन्धि कर रहे हैं। कपट का दंश मन को मथ रहा है। रोग एक के बाद एक घेरते रहे हैं। शरीर टूट चुका है। हड्डियाँ कट-कट करती हैं। दर्द भीषण है। पेशियाँ हरदम टीसती रहती हैं। कोमल संवेदनाएँ क्रूर प्रतिवाद से मर्माहत हैं। करुणा व्यथित हो अश्रुपात कर रही है। प्रतिक्रियाओं की करक से आत्मा विगलित है। ओछापन पीठ पर वार कर रहा है। बौने उपहास कर रहे हैं। नासमझ बेचारे हैं। दिल बोझिल है।

फिर भी उसकी मुस्कुराहट मधुर है, मुखमुद्रा मोहक है, चमकती आँखों में बला की कशिश है, तेवर आक्रामक है, प्रहार मारक हैं। उसके व्यक्तित्व में ग़ज़ब का सम्मोहन है। वह आगत को अनुसरण के लिये ललचाता है, अनुगत की आस्था को आत्मविश्वास के साथ राह दिखाता है, विगत को सजीव संस्मरणों की लड़ियों में रूपायित करता है, परिकल्पनाओं के पंख लगा क्षितिज पर महाकाव्य लिखता है, तथागत के आलोकित पथ को और भी प्रशस्त करता है, समय की शिला पर अपने अमिट पद-चिह्न उकेरता है। वह अनादि से अनन्त तक के महाप्रयाण का धीर, गम्भीर, श्लथ, विह्वल, एकाकी पथिक है। वह मानव-मुक्ति के महाअभियान का पुरोधा है। वह आकाशदीप की जगमगाती मशालें थामे धरती के स्वर्ग पर धावा बोल रहा है। हाँ, वह और कोई नहीं, वह तो हमारी अपनी ही माटी का बेटा है - महाबली मानव।

जगत परिवर्तनशील है और वह है परिवर्तनकामी। यथास्थिति की बर्फीली जड़ता उसके लिये असह्य है। वह भली-भाँति जानता-समझता है कि सब कुछ जो भी उत्पन्न हुआ है, सतत गतिमान रहने को बाध्य है और अपनी इसी बाध्यता के चलते अन्ततः तिरोहित हो जाने को अभिशप्त है। सृजन - रूपान्तरण - विनाश की इसी अनवरत जारी कथा का ही नाम है अमरत्व। और वह अमर है।

विराट महामानव के विशाल वक्षस्थल से टकराते नक्षत्र चूर-चूर हो उल्कापात कर रहे हैं। उसकी हुंकार से दिग्-दिगन्त कँपकँपा जा रहा है। उसकी रण-गर्जना कानों को झनझना दे रही है। उसका आवेग रोमांचकारी है। शत्रु को मसल देने का मन बनाये अपनी लम्बी-लम्बी भुजाओं को पसारे, फौलादी मुट्ठियों को भींचता, सबल पेशियों को तानता-सिकोड़ता, कदम-दर-कदम अपने मजबूत कदमों की धमक से दुश्मनों के दिल दहलाता, लक्ष्य-सिद्धि करने को आमादा वह धावा बोल रहा है। थल-थल करती उसकी मांस-पेशियाँ पीढ़ियों के घनघोर परिश्रम की अगणित कहानियाँ सुना रही हैं। उदात्त आवेग ललकार रहा है। 

उसका शरीर थक कर चूर है। मगर मन-मयूर है कि मानता ही नहीं। महाकाल के ताल की थाप पर ता-ता-थै-या करता नाचता चला जा रहा है। रचना करनी है, तो करनी है। विद्रूप उपहास कर रहा है, करने दो। उसका तो ध्वंस ही करना पड़ेगा। इससे इतर कोई गति नहीं है, तो यही सही। विद्रूप के ध्वंस को कटिबद्ध उसके संकल्प के पास रक्षा का एकमात्र मन्त्र है - प्रहार! आक्रमण! युद्ध! आमरण संग्राम में किसी न किसी लड़ाके को धराशायी तो होना ही पड़ेगा। किचकिचा कर मुट्ठियाँ बाँधे जूझ जाने को लपकता महाबली मानव अभी तक की हर टक्कर में प्रत्येक प्रतिगति को परास्त करता आया है। उसका अदम्य आत्मविश्वास यूँ ही मयस्सर नहीं हुआ। अतीत की हर जीत उसी की रही है।

विश्व-विजय की मंशा से ही उसने एक बार फिर अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा है। बहुत से लोग उसके लाल झण्डे के नीचे आ चुके हैं। तुम भी, सुन रहे हो न! तुम भी फैसला कर लो, प्रतिरोध बन्द कर दो, आत्मसमर्पण कर दो, झण्डा थाम लो, साथ दो मानव-मुक्ति के इस महाअभियान में! वरना मटियामेट कर दिये जाओगे। यह फैसले की घड़ी है। सोचो, सोचो, सोचो! जल्दी सोचो कि क्या करना है!

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