Tuesday 3 July 2012

वरिष्ठ नागरिकों के नाम एक पत्र - गिरिजेश



वरिष्ठ नागरिकों के नाम एक पत्र - गिरिजेश 

प्रिय मित्र, कई बार नयी पीढ़ी के बारे में आप की टिप्पड़ियों से मुझे लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप सब जेनेरेशन गैप के शिकार हो रहे हैं. कृपया नयी पीढ़ी की जगह पर खड़े हो कर सोचने का कष्ट करें. उनको हर बात के लिये लगातार केवल कोसते रहना उनको आपके प्रति और भी पूर्वाग्रहग्रस्त कर देगा. उनसे प्यार से अपनी बात कहने का तरीका अधिक प्रभावी होगा. तभी वे आपको सुन सकेंगे, उस पर सोच सकेंगे और आपकी अपने लिये चिंताओं को महसूस कर सकेंगे. उनके पास अपने युग-जन्य सपने हैं, अपने लक्ष्य हैं और अपने जीवन-मूल्य हैं. उनका मनोमस्तिष्क केवल पतित पाश्चात्य संस्कृति की तलछट से ही नहीं अटा पड़ा है. उनके भी अपने आदर्श हैं, जिनके जैसा वे बनना चाहते हैं और उसके लिये खूब कस कर श्रम भी करते हैं. अगर वे आप जैसे नहीं हैं, तो क्या इसमें आपका भी दोष नहीं है. आप तो केवल पैसा पैदा करने में हर तरह का ताल-तिकडम करते हुए सारी जिन्दगी अपना सारा समय लगाते गये. उनके लिये तो आपके पास आत्मीय क्षण के नाम पर समय बिलकुल था ही नहीं. जब वे छोटे थे तो आप उनको गुड्डा-गुड़िया समझ कर के खेलते रहे, थोड़ा बड़े हुए तो डाँटने-फटकारने, आतंक और भय का सहारा लेने लगे, और जब बड़े हो गये, तो उन्होंने अपनी दुनिया बना ली. एक ऐसी दुनिया जिसके बारे में आप लगभग कुछ भी नहीं जानते. आपने उनके लिये केवल पैसा जुटाया और उनको प्यार न देकर केवल पैसा ही देते रहे. और वह भी उनकी एक-एक ज़रूरत पर रिरका-रिरका कर, जलील कर-कर के, तौल-तौल कर कम से कम. ऐसे में उन्होंने अगर आपको केवल अपना ए.टी.एम.कार्ड समझ लिया, तो उनका क्या दोष! मैं तो जिन्दगी भर नौजवानों से दोस्ती करता रहा हूँ. और वे भी मुझे टूट कर प्यार करते हैं, मुझे पूरी सम्वेदना से महसूस करते हैं, मेरी सलाह सुनते हैं, उस पर खूब तर्क करते हैं और जहाँ तक हो सकता है, उसे लागू भी करते ही हैं. जैसे भी हैं, वे ही हमारा-आपका भविष्य हैं. आने वाला कल उनका ही है. वे सुबह के उगते हुए सूरज की तरह हैं. ऊर्जा से लबरेज़. उनको धिक्कारने और कोसने के बजाय प्यार करने और उनकी चूक को बर्दाश्त करने के साथ अपनी सलाह देने की आवश्यकता है. मगर उनकी अपनी आज़ादी का सम्मान करते हुए ही. निर्णय का अधिकार उनको ही देते हुए अपनी बात कहनी होगी. हम-आप अपनी जिन्दगी जैसी भी जी सके, लगभग पूरी ही जी चुके हैं. अब तो केवल इतना समझने की ज़रूरत है कि जिन्दगी अगर उनकी है, तो अपनी जिन्दगी के निर्णय भी वे ही करेंगे. और उनका ही निर्णय जब लागू होगा, तो ही वे सुखी रह सकेंगे. हमको उनके हर निर्णय के साथ हर कदम पर मजबूती से खड़े रहना होगा. उनको तरह-तरह से इमोशनली ब्लैक मेल कर के अपने सारे फैसले उन पर थोपना नितान्त गलत है. यह कहना क्या अपमानजनक नहीं है कि "मैं तुम्हारा बाप हूँ, या तुम मेरे बाप हो"! या "तुमने हमारी इज्ज़त मिट्टी में मिला दी"! या "याद रखो, तुम ही मेरी मौत की वजह बनोगे"! जब उनको अपनी पहल पर कुछ भी कर गुजरने की आज़ादी मिलेगी, तभी वे कोई भी कारनामा कर के दिखा सकते हैं. और दिखा भी रहे हैं. यह क्या केवल हमारा खुद का दृष्टि-दोष नहीं है कि हम उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्षों को पूरी तरह देख नहीं पा रहे! मेरी कड़वी जबान के लिये मुझे माफ करें. परन्तु मेरे निवेदन पर एक बार विचार अवश्य कीजियेगा. शायद दुनिया बदलने में आप सब भी कुछ और अधिक बेहतर भूमिका का निर्वाह कर ले जायें. कहा भी गया है - 

"प्राप्ये तु षोडसे वर्षे पुत्रं मित्रवत आचरेत!" 

अपनी एक कविता के साथ मैं अपना पत्र समाप्त करने की अनुमति चाहता हूँ.

अपेक्षा करता हूँ कि यह पत्र अनुत्तरित नहीं रहेगा. 

आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में - आपका गिरिजेश 


इन्द्रधनुष 
जो गढ़ा गया है बरसों में, कैसे पल में वह बदलेगा?
जो हरकत आदत बन बैठी, छूटेगी तो दिल मचलेगा।
बाहर की दुनिया वैसे ही दिन-रात भागती जाती है,
दिल के अन्दर ही सुलग-सुलग चिनगारी ख़ून जलाती है।
कुढ़ने से, चिढ़ने से, रोने-चिल्लाने से क्या होता है?
यह तो लोगों को और अधिक पूर्वाग्रह से भर देता है।
मन-माफ़िक यदि हो नहीं सका, तो क्या कुढ़ना, क्या चिल्लाना?
यदि हार गये जीवन-रण में, तो परिणति से क्या घबराना?
जग बढ़ा जा रहा है अपने ही अल्हड़पन की मस्ती से,
उसमें किशोर की अमित शक्ति, गति थकी नहीं है पस्ती से।
उसके भी सपने हैं, संगति है, पृष्ठभूमि की सीमा है,
उसके विकास का निर्धारक कारक थोड़ा ही धीमा है।
उसका अपना सुख-चैन बँधा नन्ही-नन्ही गतिविधियों से,
उसको क्या लेना-देना है, जग की नाना विध निधियों से?
क्या इन्सानों को सिक्कों-सा, टकसाल बना तुम ढालोगे?
उसकी वैयक्तिक निजता के अस्मिता-गर्व को खा लोगे?
यह सही कहा है तुमने, ‘‘अपने भर कोशिश की, प्यार किया,
अपना सारा पिछला जीवन मुट्ठी-भर ख़ातिर वार दिया।’’
क्या उनको भी तुम तनिक भी नहीं गढ़ पाने में सफल हुए?
उनके आचरणों के कारण को पढ़ पाने में विफल हुए!
उनमें जो कुछ भी है, उसमें कुछ अंश तुम्हारा भी तो है,
उनके सपनों के इन्द्रधनुष में रंग तुम्हारा भी तो है।
पर इन्द्रधनुष ‘लाल’ ही रहा, तो विकृत वह हो जायेगा;
फिर कैसे, किसको, कितना, क्यों आकर्षित वह कर पायेगा?
यदि सहज विकास-प्रवाह रुका, तो क्या सड़ाँध रुक पायेगी?
रोगी, विकलांग व्यवस्था को कुछ और ख़राब बनायेगी!
इस दुनिया में कितने आये, जो कठिन राह अपना पाये?
इनमें से भी निकले कितने, जो आख़िर तलक निभा पाये?
यदि मुट्ठी-भर लोगों ने ही, हर बार उठायी है तरंग,
तो कहाँ से तुम्हें मिल पायेगी, हर छाती में वह उमंग?
जो पीठ नहीं दिखलायेगी, जो नहीं भाग कर आयेगी;
जो जीत दिला देगी तुमको, जो नहीं कलंक लगायेगी?
हर बार पराजय-बोध, मृत्यु से अधिक बेध ही जाता है;
उल्लास नष्ट कर देता है, सबका उपहास सुनाता है।
क्या कभी पराजय से पहले ही आज तलक है विजय मिली?
पहले उगते हैं काँटे, या फिर पहले कोई कली खिली?
क्या अवरोधों से टकराने पर गिर जाना अनिवार्य नहीं?
है विकट मार्ग तो क्यों एकाकी घिर जाना स्वीकार्य नहीं?
मरना-जीना, गिरना-उठना, जीवन की सतत कहानी है,
उत्कर्ष-पतन अनिवार्य अंग, भवितव्य-कथा अनजानी है!
6
जीवन की गति स्वीकार करो, अपना प्रयास साकार करो;
छोटे घेरे में मत सिमटो, उसका पल-पल विस्तार करो।
है काम तुम्हारा बार-बार अपने प्रयास को दोहराओ,
यदि नहीं नतीज़ा सही मिला, तो सार-संकलन कर जाओ।
फिर से विराट की शक्ति पूजने का निश्चय कर बढ़ जाओ,
कितना भी प्रतिभट ललकारे, झिझको न तनिक तुम चढ़ जाओ!
या तो वह जीतेगा ही, या फिर नष्ट-भ्रष्ट हो जाना है,



जीतेगा तो फिर से लड़ना, हारेगा तो बढ़ जाना है। - गिरिजेश


"जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर ज़माना चलता है..."
प्रिय मित्र, युवा पीढ़ी को ले कर मेरा तो इससे पूरी तरह से अलग ही अनुभव है. उम्र दराज़ लोग केवल हमारी बात सुनने का अभिनय मात्र करते प्रतीत होते हैं. अगर कभी वे प्रशंसा करते भी हैं, तो उनकी प्रशंसा भी औपचारिक ही लगती है. जबकि युवा प्रशंसा कम ही करते हैं, मगर उनकी आँखों की चमक बताती है कि उनके दिल को हर महत्वपूर्ण बात छू रही है और वे लगातार एक से बढ़ कर एक कमाल भी करते ही रहते हैं. उनकी आँखों के सपने अभी वक्त की मार से टूटे नहीं होते और उनसे और भी बेहतर करवा सकने की सम्भावना हमेशा बनी रहती है. 

जबकि प्रौढ़ लोगों की प्राथमिकता किसी तरह केवल अपनी बची-खुची जिन्दगी को ढोते रहने की ही बचती है और वे केवल युवा पीढ़ी को बिलावजह कोसने में ही अपनी समूची ऊर्जा खर्च करते रहते हैं. परम्परागत सोच से बाहर निकल कर वे खुद तो कुछ भी नया करने की हिम्मत नहीं कर पाते और अगर युवा कभी भी जो कुछ भी नया-नया प्रयोग करने की ज़ुर्रत करते हैं, तो प्रौढ़ और बुज़ुर्ग लोग हरदम केवल उनका विरोध करने में ही अपनी समझदारी समझते हैं. वे युवाओं पर अपने अनुभवों और सफ़ेद बालों की धौंस जमाते रहते हैं. नये और पुराने के द्वंद्व में बार-बार हार जाने पर वे युवाओं को टार्चर करते हैं और हर सम्भव रास्ता खोज-खोज कर उनको तरह-तरह से मनोवैज्ञानिक तरीके से ब्लैकमेल करते रहते हैं. 

मुझे तो लम्बे समय तक अलग-अलग प्रयोगों के बाद केवल युवाओं से ही परिवर्तनकामी प्रयोगों में कोई प्रभावी भूमिका निभाने की उम्मीद बची है. यह उम्मीद भी उनके ऊपर पछुआ हवा के दबाव के चलते भले ही क्षीण है, मगर फिर भी है ही. और इसीलिये पिछले दो दशकों से मैं तो केवल उनके जागरण के लिये ही काम कर रहा हूँ. और आगे भी इसी काम को ज़ारी रखने का इरादा है.
मुझे जे.पी. आन्दोलन के दौर में लोकप्रिय हुआ एक गीत याद आ रहा है -
"उठो जवानो, तुम्हें जगाने क्रान्ति द्वार पर आयी है..."

कंट्राडिक्शन! एक पीढ़ी बाद वालों से यारी करेंगे, तो कदम-कदम पर झेलना पड़ेगा कंट्राडिक्शन!
उनके गाने अलग, उनकी फ़िल्में अलग, सौंदर्यबोध अलग, उनकी हर बात अलग....
और उनके हर तर्क के आगे आप लाजवाब....
और हारने ही लगें तो उम्र का हवाला दे के आपको लाजवाब कर देंगे....
कहा नहीं है बुजुर्गों ने- "लौंडों से दोस्ती, ढेले की सनसनाहट....
लेकिन इस कंट्राडिक्शन का भी अपना मजा है, बार-बार जवानी लौट आती है...

पिता और पुत्र -
यही दिन देखने के लिये ही तो आपने जिन्दगी भर झूठ बोल कर और झपसटई कर के बेतहाशा दौलत बटोरी थी और अपने बेटे की सात पुश्तों के लिये कुबेर का खज़ाना जमा करना चाहते थे.
अब जब आपकी उसी दौलत पर बेटे ने कब्ज़ा कर लिया और आपको आपकी सही जगह पर पहुँचा दिया, तो उसे कोसते क्यों हैं?
क्या आप खुद अपने आचरण में हरिश्चन्द्र रहे हैं? नहीं न! तो फिर अपने बेटे से श्रवण कुमार बनने की उम्मीद क्यों पाले हुए थे? उसे श्रवण कुमार बनाने के लिये उसके सामने आपने कौन-सा आदर्श प्रस्तुत किया था?
ऐसे लायक बेटे का नालायक बाप बनने से क्या बेहतर नहीं है कि बेटे और दौलत के चक्कर में फँस कर बुढ़ापा बर्बाद करने की नौबत लाने के बजाय जिन्दगी मानवता की सेवा में चुपचाप खर्च कर दी जाये!
तब कम से कम यह दिन तो नहीं ही देखना पड़ेगा और किसी को कोसने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी.
मेरी तो यही समझ रही है. आप क्या सोचते हैं!


माँ बाप का दिल जीत लोगे तो कामयाब हो जाओगे , 
वर्ना सारी दुनियाँ जीत कर भी हार जाओगे ..... !! 

दुर्भाग्य है हमारा , हमारे भारत देश का जहाँ पर हम श्रवण कुमार की कहानियाँ अपने बच्चो को इसलिए पढ़ाते है , की वह बड़े होकर हमारी सेवा श्रवण कुमार की तरह करें , 

ताज्जुब होता है जब वही कहानियाँ सुनाने वाला व्यक्ति व्यक्ति अपने माँ बाप के लिए अपेक्षा करता है की वह जाकर " वृद्धाश्रम या ओल्ड एज प्युपिल हाउस " मे जाकर रहें ....!! 

मित्रों तुलसीदास जी ने कहा है , 

" बाड़हीं पूत पिता के धर्मा " , अतएव माता पिता का आशीर्वाद ही हमें आंगे बढाता है , ऐसे मैं जब हम कामयाबी की बुलंदी के आसमां को छूते है तो अपनी बुनियाद को कैसे भूल सकते है ? 

क्या यही हमारा न्याय या धर्म है ? 

धिक्कार है ऐसी सोच पर ...................!! 

2 comments:

  1. अच्छा लिखा है। पोस्ट बड़ी हो तो पार्ट में लिखें। स‌ुझाव है।

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    1. सराहना के लिये आभार मित्र, आपकी सलाह उचित है. यह वस्तुतः एकाधिक पोस्ट्स का संकलन ही है. हर पिछला अगले के सन्दर्भ के लिये है. ब्लॉग में है, इसी से एक साथ देना उपयुक्त लगा.

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